बाजार कई सालों की दिशा तय करेगा इस साल

राजीव रंजन झा : इन दिनों आप चाहे अर्थव्यवस्था की बात करें या शेयर बाजार की या डॉलर बनाम रुपये के समीकरण की या फिर किसी भी अन्य आर्थिक पहलू की, बात घूम-फिर कर राजनीति पर आ जायेगी।
चाहे जिस भी आर्थिक पहलू पर नजर डालें तो हम पायेंगे कि भारत बीते 5-10 सालों की या अब तक की सबसे बुरी स्थिति में है। उद्योग जगत के दिग्गज हों या आर्थिक जानकार, आम तौर पर सभी इस बुरी स्थिति के लिए मौजूदा सरकार को जिम्मेदार मान रहे हैं। इसीलिए जब भी शेयर बाजार के जानकारों या आर्थिक विश्लेषकों से बात होती है कि अर्थव्यवस्था कब सँभलेगी, तो जवाब मिलता है कि सरकार बदलने के बाद ऐसा होने की उम्मीद रहेगी।
भारतीय अर्थव्यवस्था ने कारोबारी साल 2012-13 में केवल 5% की विकास दर (जीडीपी वृद्धि दर) दर्ज कर एक दशक की सबसे धीमी बढ़त दिखायी थी। आसार हैं कि 2013-14 में इसका प्रदर्शन कुछ और कमजोर होकर 5% से भी नीचे रह जायेगा। इंडिया रेटिंग्स ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि 2013-14 में विकास दर 4.9% रहेगी। थोड़ी सांत्वना की बात यही है कि इसने 2014-15 में 5.6% विकास दर रहने का अनुमान जताया है। लेकिन क्या यह ऐसी वृद्धि है, जिस पर भारत संतुष्ट रह सकता है? सीधा जवाब है, नहीं।
अगर बीते एक दशक की बात करें तो 10 में से सात सालों के दौरान भारत की विकास दर 7% से ऊपर ही रही है। इनमें से तीन सालों के दौरान तो विकास दर 9% को भी पार कर गयी और ऐसा लगा कि दो अंकों में विकास दर को छू लेना अब जल्दी ही हकीकत बन सकता है। लेकिन इसके बाद गाड़ी अटक गयी। इस गाड़ी को पहला झटका लगा 2008-09 के दौरान, जब अमेरिका से शुरू हुए आर्थिक संकट ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया। लेकिन उस दौरान भी हमारी विकास दर 7% से ज्यादा नीचे नहीं गयी। साल 2008-09 में भारत की विकास दर 6.72% थी, जो अगले साल ही सँभल कर 8.59% पर और फिर 2010-11 में 9.32% पर आ गयी। लेकिन इसके बाद के दो साल लगातार ढलान वाले रहे हैं। लोग ताज्जुब कर रहे हैं कि जिस देश ने वैश्विक आर्थिक संकट को भी बिना किसी खास चोट के झेल लिया, वह अब इस समय क्यों फिसड्डी बना हुआ है, जबकि अब विश्व अर्थव्यवस्था वापस सँभलती दिख रही है।
इस बात के लिए अगर किसी एक बात को सबसे ज्यादा जिम्मेदार माना जा रहा है, तो वह है केंद्र सरकार का नीतिगत पक्षाघात। यह बड़ी अजीब विडंबना लगती है कि 2004-2009 तक यूपीए-1 का कार्यकाल पूरा होने के बाद कहीं ज्यादा मजबूती से लौटी यूपीए-2 सरकार 2009 के बाद से अचानक ही तेजहीन हो गयी। यूपीए के 2004-2009 के जो पाँच साल बड़े सुनहरे दिखते थे, उन पर भ्रष्टाचार के आरोपों की कालिख लगनी शुरू हो गयी। इन आरोपों की आँच सीधे प्रधानमंत्री तक पहुँची और ऐसा लगा कि सारी सरकारी मशीनरी ठप पड़ गयी है। कहीं कोई काम नहीं, कहीं कोई फैसला नहीं, कोई नयी नीति नहीं। अरबों रुपये की परियोजनाएँ रुकी रहीं, निवेश की धारा सूख गयी और उद्योग जगत त्राहिमाम कर उठा। दूसरी ओर बढ़ती महँगाई से जनता परेशान हो उठी।
महँगाई पर काबू पाना सरकार का काम था, लेकिन सरकार ने इसे आरबीआई के भरोसे छोड़ दिया। आरबीआई के पास केवल एक ही औजार था - ब्याज दरें बढ़ाना। आरबीआई इस औजार का जहाँ तक इस्तेमाल कर सकता था, उसने किया। उद्योग जगत चिल्लाता रहा कि आप गलत दवा दे रहे हैं, इससे फायदा नहीं उल्टे नुकसान होगा। लेकिन आरबीआई इसी नीति पर चलता रहा कि महँगाई पर काबू पाने के लिए विकास दर को कुछ धीमा करना जरूरी है। महँगाई आज भी बेकाबू है, पर विकास दर जरूर धीमी हो चुकी है। इस माहौल में अर्थ-जगत यह मान चुका है कि राजनीतिक बदलाव से ही भारत फिर से तेज आर्थिक वृद्धि के रास्ते पर लौट सकेगा।
साल 2014 के गर्भ में क्या छिपा है, इसका अनुमान लगाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि बीते छह सालों से शेयर बाजार सारी उठापटक के बावजूद जस-का-तस है। जनवरी 2008 में सेंसेक्स ने 21,207 का जो शिखर बनाया था, उसे इसने अभी दिसंबर 2013 में पार किया और 21,484 का नया रिकॉर्ड बनाया। इन पंक्तियों को लिखते समय सेंसेक्स का 15 जनवरी 2014 का बंद स्तर 21,289 पर है। मतलब यह कि इन छह सालों में सेंसेक्स ने कोई बढ़त हासिल नहीं की है, केवल जनवरी 2008 के ऊपरी स्तरों के पास लौट कर आ पाया है।
ऐसे में अगर बाजार के अनुकूल परिस्थितियाँ बन पायीं तो यह कभी भी एक लंबी छलाँग लगा सकता है, भले ही बाजार के जानकार अभी ऐसी किसी लंबी छलाँग के हिसाब से बड़े लक्ष्य नहीं दे रहे हों। लेकिन दूसरी ओर राजनीतिक घटनाक्रम बाजार की आशा के विपरीत रहने पर यह बुरी तरह धराशायी भी हो सकती है। इस लिहाज से साल 2014 अगले कई सालों के लिए शेयर बाजार की दिशा तय करने वाला साल साबित हो सकता है। Rajeev Ranjan Jha
(शेयर मंथन, 20 जनवरी 2014)