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घोषणाओं की रेल के आगे

राजीव रंजन झा : सदानंद गौड़ा के ब्रीफकेस से कोई भभूत नहीं निकला, कोई चमत्कार नहीं हुआ। बुलेट ट्रेन की घोषणा जरूर हो गयी, लेकिन रेल बजट का पूरा भाषण सुनने के बाद लोगों को लगा कि अरे, पहले के भाषण भी तो ऐसे ही होते थे!

यह तो मोदी का पहला रेल बजट था, इसे पेश करने के समय फुलझड़ियाँ झूटनी चाहिए थी, आतिशबाजी होनी चाहिए थी, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं! बजट के बाद पवन बंसल बोले कि तेज गति ट्रेनों के लिए सारी तैयारी तो हमने की थी, कुछ हमारा भी नाम ले लेते। लालू बोले - रेल बजट में पीप्पीप्पीssss। मजाक उड़ा रहे थे पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) का। 

शेयर बाजार भी दम साधे रेल बजट का भाषण सुन रहा था। बजट के बाद थोड़ा गिरा और उसके कुछ समय बाद एकदम धड़ाम से गिरा। बाजार बंद होते-होते सेंसेक्स ने नीचे की तरफ छह शतक लगा दिये। रेलवे से जुड़े जितने शेयर थे, उनमें से काफी में निचला सर्किट लग गया। टेक्समैको में 20% की गिरावट आ गयी। रेल बजट से एक दिन पहले ही यह शेयर 13 प्रतिशत उछला था और इस साल अब तक की इसकी उछाल 183 प्रतिशत की थी। 

लेकिन रेल बजट के बाद अच्छी-खासी गिरावट उन शेयरों में भी आयी, जिनका सीधा संबंध रेलवे से नहीं है। इसका मतलब यह है कि रेल बजट को देखने के बाद लोगों के पाँव जमीन पर आये हैं और वे महसूस करने लगे हैं कि आम बजट में भी पटाखे नहीं छूटने वाले। 

एक बाजार विश्लेषक ने ठीक ही कहा कि रेल बजट में अपने-आप में कोई बड़ी निराशा नहीं हुई है, बल्कि लोगों ने जो बढ़ी-चढ़ी उम्मीदें लगा रखी थीं उनकी तुलना में यह रेल बजट फीका रह गया। आप किसी से भी पूछ लें कि रेल बजट ऐसा क्या नहीं हुआ, जिसकी आपने उम्मीद लगा रखी थी, तो आपको शायद कोई साफ जवाब नहीं मिले। लेकिन लोगों ने चमत्कारी रेल बजट की उम्मीद लगा रखी थी, और सब देखने के बाद उन्हें लग रहा है कि कोई चमत्कार तो हुआ नहीं है!

हालाँकि इस बजट को तेज गति पर जोर देने के लिए आने वाले वर्षों में जरूर याद किया जा सकेगा। न केवल इसलिए कि इसमें बुलेट ट्रेन का औपचारिक ऐलान कर दिया गया है। इससे पहले कई दशकों से सरकारें इस बारे में सोचती रहीं और अपने पाँव पीछे खींचती रहीं। लालू प्रसाद यादव तो साफ कहते रहे कि इस देश को बुलेट ट्रेन की जरूरत नहीं है। 

यह विवाद तो रहेगा कि भारत के लिए बुलेट ट्रेन चलाना बेहतर है या उस पर लगने वाली भारी-भरकम पूँजी का इस्तेमाल मौजूदा नेटवर्क को ही सुधारने पर करना बेहतर है, खास कर इस संदर्भ में कि रेलवे हमेशा संसाधनों का रोना रोता रहता है। लेकिन बुलेट ट्रेन का एक मतलब अच्छी ब्रांडिंग भी है। यह एक उभरती अर्थव्यवस्था का विश्व को दिया गया वक्तव्य भी है। यह घरेलू राजनीति में मोदी-मार्का विकास भी है। इसीलिए पहली बुलेट ट्रेन मुंबई से अहमदाबाद के बीच होगी। 

लेकिन बुलेट ट्रेन के अलावा भी सेमी बुलेट ट्रेनें चलाने की घोषणा की गयी है। ये घोषणाएँ ज्यादा व्यावहारिक हैं और जल्दी अमल में आने वाली हैं। चुनिंदा 9 क्षेत्रों में 160-200 कि.मी. प्रति घंटा की गति वाली रेलों का प्रस्ताीव है।  ये ट्रेनें पाँच साल बाद मोदी सरकार की 60 महीने की रिपोर्ट कार्ड का हिस्सा हो सकती हैं, पर बुलेट ट्रेन के बारे में अभी यह बात भरोसे के साथ नहीं कही जा सकती। यह अपने-आप में आश्चर्यजनक भी है कि तेज गति की ट्रेनों के हीरक चतुर्भुज (डायमंड क्वाड्रिलैटरल) नेटवर्क की महत्वाकांक्षी योजना के लिए केवल 100 करोड़ रुपये की आरंभिक राशि तय की गयी है। गौरतलब है कि एक सेक्टर में बुलेट ट्रेन का नेटवर्क बनाने पर अनुमानित खर्च 60,000 करोड़ रुपये बताया जाता है। 

इस रेल बजट की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यात्री किराये में भी अपने-आप समय-समय पर वृद्धि का रास्ता खोल दिया गया है। इसमें कहा गया है कि किराये का संबंध ईंधन की कीमत से जोड़ा जायेगा। यानी जब भी ईंधन की कीमत बढ़ेगी, यात्री किराये अपने-आप बढ़ जायेंगे। इस फैसले से यात्री किराये में बदलाव की घोषणा का रेल बजट से संबंध खत्म ही हो जायेगा। 

निजी क्षेत्र की सहभागिता के लिए सरकारी-निजी साझेदारी (पीपीपी) पर खास जोर भी इसका एक महत्वपूर्ण पहलू है। यह दिलचस्प है कि कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने भी रेलवे में पीपीपी पर जोर देने की आलोचना की है, जबकि यूपीए के 10 वर्षों के शासन में लगातार अर्थव्यवस्था के तमाम क्षेत्रों में पीपीपी को बढ़ावा देने का गाना गाया जाता रहा। एफडीआई और पीपीपी के माध्यम से आने वाले वर्षों में रेलवे परियोजनाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी काफी बढ़ने की संभावनाएँ खुलती हैं। 

बजट की बहुत सारी घोषणाएँ ऐसी हैं, जो पहली नजर में बहुत प्रभावित नहीं करतीं। लेकिन प्रभावित नहीं करने का मुख्य कारण सरकारी वादों पर अविश्वास है। स्टेशन पर साफ पानी किसे नहीं चाहिए? लेकिन बीते वर्षों में स्टेशन के नल पर मिलने वाले पानी की स्वच्छता पर भरोसा नहीं होने या उसके खारेपन की वजह से ज्यादा-से-ज्यादा लोग बोतलबंद पानी पीने को मजबूर हुए हैं। 

अब अगर रेल मंत्री कह रहे हैं कि स्टेशनों पर आरओ सिस्टम लगेंगे तो यह एक बड़ी कमी को दुरुस्त करने वाला कदम है। लेकिन इस खबर पर अभी उत्साह नहीं जगता क्योंकि एक अविश्वास है। पता नहीं कब तक लगेंगे ये आरओ सिस्टम। लग गये तो काम करेंगे भी या नहीं? आरओ सिस्टम तो लग जायेगा, मगर नलके और बेसिन पर लगी काई को देख कर कौन जायेगा उसका पानी लेने! इसलिए यह मामला एक बड़ी घोषणा का नहीं, उस पर असरदार ढंग से अमल का है। चुनौती यह है कि रेल यात्रियों को स्टेशन पर पीने के लिए स्वच्छ पानी मिले। यह बात केवल रेल बजट बजट में घोषणा कर देने भर से नहीं हो जायेगी। 

यही बात खाने को लेकर है। केवल ब्रांडेड कह देने भर से खाना अच्छा नहीं हो जाता। इस समय भी स्टेशनों पर निजी ब्रांड दिखते हैं। उनका खाना और कीमत देख कर भी सभ्य भाषा में इतना तो कहा ही जा सकता है कि दाम बड़े और दर्शन छोटे। 

इस रेल बजट में तकनीक पर जोर देना अच्छा है। लेकिन कुछ बातें तकनीक की नहीं, विचार की हैं। मसलन, प्लेटफॉर्म टिकट और सामान्य (जनरल) श्रेणी के टिकट इंटरनेट पर मिलना और विश्राम-गृह (रिटायरिंग रूम) की ऑनलाइन बुकिंग। पहले भी भला इसमें कौन-सी तकनीकी दिक्कत थी? लेकिन शायद इस बारे में गंभीरता से सोचा ही नहीं गया। स्टेशनों और चुनिंदा ट्रेनों में वाईफाई से इंटरनेट अब कुछ खास लोगों के लिए नहीं बल्कि आम लोगों के लिए भी जरूरी सुविधा है। माल ढुलाई के लिए भी ऑनलाइन बुकिंग की व्यवस्था से निश्चित रूप से सहूलियत होगी।

लेकिन रेलवे के कामकाजी तौर-तरीके में सबसे बड़ा बदलाव जिस एक घोषणा से आने वाला है, वह यह है कि रेलवे की सारी खरीद ई-टेंडर से होगी। यह एक कदम भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ सकता है। लेकिन ऐसा तभी होगा, जब ई-टेंडर को प्रभावी तरीके से लागू किया जाये, वरना लोग हर बात में जुगाड़ निकाल लेते हैं। अभी आईआरसीटीसी की ऑनलाइन बुकिंग में भी तो घपले होते ही रहते हैं।

भारतीय रेलवे के बहुत-से बुनियादी सवालों का जवाब यह रेल बजट नहीं देता। दो-दो महीने पहले टिकट लेने पर भी प्रतीक्षा-सूची का टिकट मिलना कब खत्म होगा? ट्रेन समय पर पहुँचेगी या नहीं, यह संशय कब खत्म होगा? ट्रेन सही-सलामत पहुँच जायेगी या नहीं, यह संशय कब खत्म होगा? सफाई के लिए खर्च 40 प्रतिशत बढ़ा देने की बजट में की गयी घोषणा से ही अगर स्टेशनों और ट्रेनों की सफाई पक्की हो जाती तो बात ही क्या थी! अब देखते हैं कि सीसीटीवी से सफाई की निगरानी कितनी हो पाती है। Rajeev Ranjan Jha

(शेयर मंथन, 08 जुलाई 2014)

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