2009: आसान नहीं फैसले

राजीव रंजन झा

बीते साल के दौरान निवेशकों को बाजार में जिस तरह के धक्के लगे, उसके बाद नये साल में कोई भी उम्मीद पालना उनके लिए बड़ा मुश्किल है। और फिर, उनके लिए सबसे बड़ी उलझन यह है कि आगे का रास्ता कैसा रहने वाला है, इसके बारे में हद से ज्यादा अनिश्चितता है। विश्लेषकों का एक नजरिया कहता है कि हमारी अर्थव्यवस्था अगले 6-9 महीनों में फिर से संभलने लगेगी और उस बात को महसूस करके शेयर बाजार अगले 3 महीनों में ही वापस संभलने लगेगा। दूसरा नजरिया कहता है कि हम अगले साल-डेढ़ साल तक शेयर बाजार को एक दायरे में ही जमता देखेंगे। तीसरा नजरिया कहता है कि इतनी भी क्या जल्दी है, हम तो कई सालों की मंदी के बाजार में जा चुके हैं!

असली अनिश्चितता अर्थव्यवस्था को लेकर है, और उसी वजह से बाजार असमंजस में है। भारत में इस आर्थिक अनिश्चितता के साथ-साथ अगले कुछ महीनों तक राजनीतिक अनिश्चितता की भी छौंक लग चुकी है। इन दोनों अनिश्चितताओं के बीच क्या बड़े निवेशक अपने निवेश के बारे में बड़े फैसले कर सकेंगे?
फिलहाल, ऑटो बिक्री, आयात-निर्यात वगैरह के जो आँकड़े सामने आये हैं, उनसे यही लगता है कि साल भर पहले की तुलना में स्थिति खराब है। लेकिन ठीक पिछले महीने की तुलना में स्थिति या तो संभली है या फिर कम-से-कम और बिगड़ी नहीं है। इससे एक उम्मीद यह जगती है कि शायद कई क्षेत्रों के लिए सबसे बुरा दौर बीत चला हो। लेकिन ऐसा कोई नतीजा निकालने से पहले हमें कुछ और महीनों के आँकड़े आने का इंतजार करना होगा।
पहली तिमाही के कारोबारी नतीजे अगर बाजार अनुमानों के मुताबिक ही कमजोर रहते हैं, तो शायद उससे थोड़ा झटका लगेगा। लेकिन लोग पहले ही यह मान चुके हैं कि इस कारोबारी साल की तीसरी और चौथी दोनों तिमाहियाँ कमजोर रहने वाली हैं। इसलिए अब वास्तव में इंतजार इस बात का होगा कि नये साल की पहली तिमाही कुछ बेहतर संकेत लाती है या नहीं। यानी आर्थिक और राजनीतिक, दोनों तस्वीरें साफ होते-होते जून-जुलाई का समय आ जायेगा।
तब तक कभी इस खबर तो कभी उस खबर के चलते, या कभी निचले भावों पर खरीदारी तो कभी मुनाफावसूली के चलते बाजार ऊपर-नीचे होते रहेंगे। लेकिन कोई निर्णायक दिशा इस साल की पहली छमाही में मिलेगी, यह उम्मीद करना मुश्किल है।