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निखर कर सामने आये हैं राहुल गांधी (Rahul Gandhi) : विनोद शर्मा

एआईसीसी के सत्र में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) का भाषण उनके अपने मानक से अब तक सबसे बेहतरीन भाषण था।

इसमें हँसी-मजाक, जोश और वादे थे। कुल मिला कर संतुलित भाषण था।  उन्होंने इस तकरीर को अदा भी बड़े अच्छे तरीके से किया। ये बात अलग है कि जब आप अपने ही श्रोताओं से संबोधित होते हैं तो आप बेहतर बोलते हैं। लेकिन अगर राहुल गांधी के ही भाषण की तुलना नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के भाषणों से करें तो राहुल का भाषण बेहतर सुनायी देता था, जहाँ तक उनके अपने श्रोताओं और कार्यकर्त्ताओं का सवाल है। राहुल गांधी ने अपने कार्यकर्त्ताओं में रक्त का संचार बेहतर ढंग से किया। कांग्रेस चार राज्यों में विधानसभा चुनाव हारने के बाद औंधे मुँह पड़ी थी। ऐसे समय में इसी तरह के भाषण की जरूरत थी, जिससे कार्यकर्त्ताओं में जोश पैदा हो सके। इसमें राहुल गांधी काफी हद तक सफल भी रहे। यह ट्रिस्ट विद डेस्टिनी जैसा भाषण तो नहीं था, लेकिन यकीनन यह ट्रिस्ट विद वोटर वाला भाषण था।

राहुल गांधी ने कहा कि सात करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर आये हैं, लेकिन अगर उनके घर में कोई भी बीमारी हो जाये तो वे वापस गरीबी रेखा से नीचे चले जायेंगे। उन्होंने अपने भाषण में गरीबों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की बात कही। उन्होंने कृषि उत्पाद विपणन समितियों (एपीएमसी) में सुधार की भी बात कही। उन्होंने सरकार की उन नीतियों को विस्तार से बताया, जिनमें लोगों को अधिकार दिये गये हैं। उन्होंने कहा कि शिक्षा ही गरीबों के लिए सबसे बड़ा सशक्तीकरण है। भ्रष्टाचार पर भी वे विस्तार से बोले। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सबसे बड़ा कानून आरटीआई है, जो कि सच है। मनमोहन सिंह सरकार की उपलब्धियों पर पहली बार उन्होंने इतना जोर दिया। इस सरकार की उपलधियाँ तो हैं। अभी उनका लाभ नजर नहीं आयेगा। लेकिन आने वाली कोई भी सरकार उन्हें वापस नहीं ले सकती, चाहे वह खाद्य सुरक्षा हो, सूचना का अधिकार हो या फिर शिक्षा का अधिकार हो।
राहुल गांधी ने इस सरकार की उपलब्धियों को अपना माना भी, लेकिन सरकार से कुछ अलग दिखना भी जारी रखा। राजनीति में किसी चीज को पूरी तरह से तो खारिज नहीं किया जाता। सरकार की जो कमियाँ थीं, उन्हें प्रधानमंत्री ने स्वयं भी माना है। मैं यह मानता हूँ कि एआईसीसी के इस सत्र में ईमानदारी से बात हुई। आप इस बात पर बहस कर सकते हैं कि नाकामियों को केवल सतही तौर पर कहा गया, लेकिन राजनीति में विफलताओं को मान लेना अच्छी चीज होती है। जनता के समक्ष कांग्रेस अपनी साख को तभी वापस पा सकती है जब वह ईमानदारी से बात करे, जहाँ भूल हुई उसे स्वीकार करे और जो अच्छे काम किये हैं उन्हें भी जनता को बताये। 
केवल एक बार राहुल ने जब एक अध्यादेश को बकवास बताया तो उस पर काफी बवाल हो गया। लेकिन मेरा मानना है कि नौजवान नेताओं की भाषा में थोड़ी-बहुत विद्रोही झलक होनी चाहिए। राहुल गांधी को विद्रोही छवि वाला नेता नहीं माना जाता, क्योंकि वे एक विशेष परिवार से संबंध रखते हैं। लेकिन वंश विभिन्न तरह के होते हैं। एक स्वेच्छाचारी वंश होता है और दूसरा लोकतांत्रिक वंश होता है। लोकतांत्रिक वंशों की प्रथा पूरे विश्व में है, विशेष रूप से दक्षिण एशिया में। पाकिस्तान में भुट्टो वंश है। बांग्लादेश में मुजीर्रहमान और खालिदा जिया के परिवार हैं। श्रीलंका में भंडारनायके वंश है तो नेपाल में कोइराला वंश। अमेरिका में बुश और कैनेडी वंश हैं। ये लोकतांत्रिक वंश हर जगह हैं। इसे वंशवाद कह कर विपक्षी इनका तिरस्कार करते रहे हैं, लेकिन ये राजा-रजवाड़ों के समय में होने वाले वंशात्मक राज से अलग हैं।
मोदी के भाषण से ऐसा लगता था कि वे सपनों के सौदागर हो गये हैं। बुलेट ट्रेन होगी, 100 नये शहर बनायेंगे। वे बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। ये सब चीजें हो सकती हैं, लेकिन इनमें काफी समय लगेगा। अभी वे 60-62 वर्ष के हैं, ये सब करने में उन्हें 100 वर्ष लग जायेंगे। जनता की उम्मीदें बढ़ानी चाहिए, लेकिन इतनी भी नहीं कि बाद वे आपकी नीतियों और कार्यप्रणाली पर ही हावी हो जायें। आजकल अरविंद केजरीवाल के साथ यही होता दिख रहा है।
राहुल ने जो कहा, उसका विस्तृत कार्यक्रम तो पार्टी रखेगी। मोदी ने जो पढ़ा, वह पार्टी का आर्थिक घोषणापत्र ही था। मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं, लिहाजा इसे मोदी की दृष्टि समझा जाता है। राहुल गांधी को आधिकारिक तौर पर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया गया है, लेकिन वास्तव में पद के उम्मीदवार तो वही हैं। नेता पार्टी से जुदा नहीं होता है। लेकिन मोदी अपने-आप को पार्टी से अलग दिखाना चाहते हैं। इसलिए पार्टी उनके व्यक्तित्व में विलीन हो गयी है। हर जगह मोदी अभियान चल रहा है, भाजपा अभियान नहीं। इस पर भी बहस की जा सकती है कि यह व्यक्तिवाद है या नहीं। डायनेस्टी और व्यक्तिवाद में क्या फर्क है? बड़ा महीन-सा ही अंतर है ना।
राहुल गांधी का भाषण संतुलित था, ज्यादा सधा हुआ था। मोदी का भाषण उनके अपने ही पुराने रिकॉर्ड के मुकाबले थोड़ा कम आकर्षक था, क्योंकि मोदी बोलने में बहुत पटु हैं। लेकिन बात थोड़ी सधी हुई और समझने लायक होनी चाहिए। शोर मचा कर बात नहीं करनी चाहिए।
राहुल ने अपने भाषण में कुछ बातों पर ज्यादा बल जरूर दिया है, लेकिन मोदी और राहुल गांधी के भाषण की तुलना करना बहुत ही अनुचित होगा। मोदी का व्यक्तित्व डराता है। राहुल का व्यक्तित्व डराता नहीं है। हाँ वो जरूर जोश में आ गये, जोर से बोल दिया। लेकिन उनके व्यक्तित्व में धमकी का पुट नहीं है, उनका व्यक्तित्व संजीदा है। लगता है कि वे आपसे बात कर रहे हैं। लोगों से बात करने और उन्हें संबोधित करने में बहुत अंतर है। इस बारे में मोदी को सुधार की जरूरत है। इस देश को मजबूत नहीं, निर्णायक और संवेदनशील प्रधानमंत्री चाहिए। यह बहुत बड़ा देश है। इसे चलाने के लिए संवेदना की जरूरत है।
राहुल गांधी ने अपने-आप को निखारा है। पहले की तुलना में इस बार वे अच्छे लगे। इसे वे और कितना बढ़ा पाते हैं, यह उनकी प्रतिभा पर निर्भर करता है। राहुल गांधी और मोदी में विशेष अंतर यह है कि टेस्ट क्रिकेट की भाषा में राहुल गांधी चौथी पारी में मुश्किल विकेट पर बल्लेबाजी कर रहे हैं, जबकि मोदी एक बैटिंग विकेट पर बल्लेबाजी करने आये हैं। इसलिए मैं समझता हूँ कि बल्लेबाजी की स्थितियाँ राहुल गांधी के बजाय मोदी के लिए बेहतर हैं। राहुल गांधी अपने पिता राजीव गांधी, दादी इंदिरा गांधी और माँ सोनिया गांधी के भी मुकाबले बहुत ही कठिन परिस्थितियों में अपनी पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं। इसलिए उन्हें संदेह का लाभ देना चाहिए। उम्र भी उनके साथ है। वे मोदी से उम्र में 20 वर्ष छोटे हैं। हम तो यह चाहते हैं कि इस देश में काँटे की टक्कर हो। जम्हूरियत के लिए इकतरफा लड़ाई ठीक नहीं होती। विनोद शर्मा, राजनीतिक संपादक, हिंदुस्तान टाइम्स (Vinod Sharma, Political Editor, Hindustan Times)
शेयर मंथन, 26 जनवरी 2014 

 

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