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महज दो महीने में करेंसी डेरिवेटिव में 20% हिस्सेदारी हासिल: आशीष कुमार चौहान

नयी तकनीक के दम पर बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) ने करेंसी डेरिवेटिव सेगमेंट में अपनी हिस्सेदारी तकरीबन 20% करने में कामयाबी हासिल कर ली है।
दो महीने से भी कम समय में यह सफलता पाने के बाद आने वाले दिनों में हम अन्य सेगमेंट में भी इस तकनीक को लागू कर रहे हैं ताकि उनमें भी हिस्सेदारी बढ़ायी जा सके। पिछले दिनों बीएसई के करेंसी डेरिवेटिव सेगमेंट में दैनिक कारोबारी मात्रा 2,000 करोड़ रुपये को पार कर गयी। इस सफलता के पीछे एक बड़ी वजह है वह नयी तकनीक जो हमने 29 नवंबर 2013 से लागू की है। यह इस बात के बावजूद हुआ है कि अभी केवल 20-30% लोग ही इससे जुड़े हैं। दरअसल लोगों को किसी नये ट्रेडिंग सिस्टम के साथ जुड़ने में वक्त लगता है और सभी संबंधित पक्षों- बैंक, ब्रोकर, कस्टोडियन, सबब्रोकर- को हमारी व्यवस्था के अनुरूप अपनी व्यवस्थाओं में बदलाव करने पड़ रहे हैं। यह काम एक-दो महीने में होना संभव नहीं है क्योंकि लोगों को पता नहीं कि हमारा सिस्टम कैसे चलेगा और उसका प्रदर्शन कैसा रहेगा।

नयी तकनीक है 50 गुना तेज
दरअसल किसी एक्सचेंज के लिए स्पीड का काफी अधिक महत्व है। और कोई सोच भी नहीं सकता था कि भारत में उन्हें इतनी अधिक स्पीड मिलेगी, जितनी हम नयी तकनीक के जरिये लाये हैं। हमारी मौजूदा व्यवस्था में हम 10000 ऑर्डर प्रति सेंकेड लेते हैं और उनका रिस्पांस टाइम 10 मिली सेकेंड होता है। लेकिन नयी व्यवस्था में हम 5 लाख ऑर्डर प्रति सेकेंड ले रहे हैं और उनका रिस्पांस टाइम 200 माइक्रो सेकेंड है। यानी हम 50 गुना अधिक ऑर्डर ले रहे हैं, साथ ही रिस्पांस टाइम घट कर पहले का 50वां हिस्सा हो गया है। इसकी वजह से नवंबर 1994 में ऑटोमेशन की शुरुआत के बाद से पहली बार बीएसई बढ़त की स्थिति में आ गया है। 
अगले तीन सालों हमने रिस्पांस टाइम को घटा कर 20 माइक्रो सेकेंड करने का लक्ष्य रखा है और अगले पाँच सालों में हम इसे 1 माइक्रो सेकेंड या इससे भी कम करने की कोशिश करेंगे। डायचे बोर्स, जिसकी बीएसई में 5% हिस्सेदारी है, ने पाँच सालों में कई अरब डॉलर लगा कर यह तकनीक विकसित की है। इनसे इस तकनीक को हासिल करने के लिए इनके साथ हमने जो व्यवस्था बनायी है, उसमें हमारी शुरुआती लागत काफी कम है। लेकिन अगर यह सफलतापूर्वक चला, तो हम अपनी आय का एक हिस्सा इन्हें देंगे।

मौजूदा व्यवस्था बोल्ट हो जायेगी बंद  
नये प्लेटफॉर्म को हमने अभी करेंसी डेरिवेटिव सेगमेंट के लिए लागू किया है। इसे 28 जनवरी से इंट्रेस्ट रेट फ्यूचर्स और 7 फरवरी से इक्विटी डेरिवेटिव्स के लिए लागू किया जायेगा। इसके बाद अप्रैल-मई तक इक्विटी स्पॉट के लिए भी हो जायेगा। इसके साथ ही हम तकरीबन 19 सालों से चल रही व्यवस्था बोल्ट को बंद कर देंगे और सब कुछ नयी तकनीक पर आ जायेगा। भारत में अभी तक ऐसा नहीं हुआ है कि किसी स्थापित सिस्टम को बदला गया हो। दुनिया भर में भी ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं। ऐसा करना कठिन है क्योंकि एक्सचेंज की व्यवस्था में बदलाव की वजह से हजारों ब्रोकरों और लाखों उपयोगकर्ताओं पर इसका असर पड़ता है।  
आप सोच रहे होंगे कि आखिर इस नये प्लेटफॉर्म से कारोबारियों को क्या फायदा होगा? इसकी वजह से वे किसी सूचना पर सबसे तेज तरीके से काम कर सकते हैं। इसके अलावा वे ऑर्डर बुक की कतार में सबसे आगे आ जायेंगे। यही नहीं, इस प्लेटफॉर्म पर कारोबार न करने से उसको नुकसान बहुत होगा क्योंकि अगर वे धीमे एक्सचेंज में ऑर्डर डालते हैं तो वे पुराने डेटा पर ट्रेड करते हैं।   

28 जनवरी से इंट्रेस्ट रेट फ्यूचर्स की शुरुआत
इसके बाद 28 जनवरी से हम इंट्रेस्ट रेट फ्यूचर्स की शुरुआत कर रहे हैं। यह उन सभी के लिए उपयोगी है जिनका इंट्रेस्ट रेट का एक्सपोजर है। इस इंस्ट्रुमेंट का इस्तेमाल करके इस एक्सपोजर को हेज किया जा सकता है। बैंकों, कॉरपोरट आदि का इंट्रेस्ट रेट एक्सपोजर ज्यादा होता है और इसके बारे में इनकी जानकारी भी अधिक होती है। ऐसे में वे इस इंस्ट्रुमेंट को अधिक इस्तेमाल करते हैं। लेकिन एक बार जब सूचना सभी जगह पहुँच जाती है तो सभी इसका इस्तेमाल करते हैं। जरूरी है इसके बारे में पर्याप्त जानकारी। 
बैंकिंग क्षेत्र को इसकी बहुत जरूरत है। बेसल 3 नियमों के आने के बाद उनको बाजार में अपने कुछ जोखिमों की हेजिंग करनी पड़ेगी, जो पारदर्शी है। 2007-08 के वैश्विक वित्तीय संकट में एक बात जो उभर कर आयी वह यह कि एक्सचेंज ट्रेडेड बाजारों में कम समस्याएँ आयीं क्योंकि उनमें पारदर्शिता ज्यादा थी। जब क्लियरिंग कॉर्पोरेशन रिस्क मैनेजमेंट करता है तो लोग उसमें अनावश्यक जोखिम नहीं ले सकते। जितना मार्जिन दिया है, उतना ही रिस्क ले सकते हैं। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर नियंत्रण की स्थिति बन जाती है। 
इंट्रेस्ट रेट डेरिवेटिव इससे पहले तीन बार असफल हो चुका है। चौथी बार में यह सफल होगा या नहीं होगा इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्भ में है। दरअसल डेरिवेटिव या किसी भी उत्पाद को जब आप बाजार में उतारते हैं तब उसकी खामियाँ पता चलती हैं और फिर आप उसको सुधारते हैं। कई बार इसमें काफी समय लग जाता है। 
मेरा मानना है कि इस बार यह अच्छे स्वरूप में सामने आया है। अब इसमें फिजिकल सेटलमेंट के बजाय नकद सेटलमेंट किया जायेगा। पहले इसमें फिजिकल सेटलमेंट होता था तो यदि एक्सपायरी के समय किसी कारोबारी का सौदा खुला रह जाता था तो उसे डिलिवरी देनी पड़ती थी या लेनी पड़ती थी। बाजार में लिक्विडिटी की कम मात्रा को देखते हुए यह एक मुश्किल काम था। आरबीआई और सेबी ने जो नये नियम बनाये हैं, उनके तहत अब कैश सेटल्ड डेरिवेटिव आ रहे हैं। उसकी वजह से ऐसा लग रहा है कि यह सौदे करना आसान है।  

कई सेगमेंट में अग्रगामी है बीएसई  
पिछले चार-पाँच सालों में बीएसई ने काफी मेहनत की है तो अब जाकर एक ऐसा ढाँचा तैयार हुआ है जहाँ पर बीएसई की तुलना दुनिया के बेहतरीन एक्सचेंजों से की जा रही है। यह तुलना हर क्षेत्र में हो रही है- चाहे वह अनुपालन हो, दूरदर्शिता हो या विविध प्रकार के उत्पादों की उपलब्धता हो। दरअसल कई ऐसे सेगमेंट हैं जिनमें बीएसई की हिस्सेदारी काफी अधिक है। एक्सचेंज के जरिये म्यूचुअल फंड वितरण में बीएसई की हिस्सेदारी अच्छी-खासी है। एसएमई की सूचीबद्धता में भी वही स्थिति है। बीएसई एसएमई एक्सचेंज पर अब तक 45 कंपनियाँ सूचीबद्ध हो चुकी हैं। हर कंपनी ने औसतन 9-10 करोड़ रुपये एकत्र किये हैं। कुल मिला कर इन कंपनियों का बाजार पूँजीकरण 3,400 करोड़ रुपया है। पिछले तीन चार सालों में कई सेगमेंट में बीएसई ने अग्रगामी की भूमिका निभायी है। और जो पुराने सेगमेंट हैं उनमें भी बीएसई की बाजार हिस्सेदारी बढ़ रही है। 
बीएसई ने अब कमर कस ली है और कम दामों में ब्रोकरों और निवेशकों को यह बेहतर तकनीक व अच्छे उत्पाद उपलब्ध करा रहा है। हमने हर बार इस बात पर ध्यान दिया कि किस तरह हम ऐसे उत्पाद विकसित करें जो अधिक निवेश-केंद्रित हों। अगर भारत को प्रगति करनी है तो पूँजी निर्माण आवश्यक है। और यह निवेश से ही संभव है। उत्पादों में ट्रेडिंग हो, लेकिन ट्रेडिंग ही भारी न पड़े। ट्रेडिंग ही एकमात्र गतिविधि न बन जाये। ऐसा न हो कि हम सट्टेबाजों की पीढ़ी विकसित कर डालें। 
आशीष कुमार चौहान, एमडी एवं सीईओ, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज
(शेयर मंथन, 25 जनवरी 2014)

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