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टेलीकॉम मतलब सोने के अंडे देने वाली मुर्गी

राजीव रंजन झा : अगर आपने पिछले कुछ समय से संचार (टेलीकॉम) क्षेत्र के शेयरों से हाथ धो लिया हो, तो आपके फैसले पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता।

शायद सरकार और नियामक ने ही इस कमाऊ क्षेत्र से हाथ धो लेने का मन बना लिया है। टेलीकॉम को अब सोने के अंडे देने वाली मुर्गी मान लिया गया है और इसे काटने के लिए सरकार बेताब है। लेकिन जमीनी हकीकत तेजी से बदलती जा रही है, जो संचार कंपनियों के नतीजों में दिख रही है।
संचार क्षेत्र में विवाद पहले भी थे, आज की तरह ही तीखे थे। इस क्षेत्र में हमेशा ही गलाकाट प्रतिस्पर्धा भी रही है। इन सबके बावजूद पहले और आज की स्थितियों में एक फर्क है। पहले सारे विवादों और प्रतिस्पर्धा के दबावों के बावजूद इस क्षेत्र का कारोबार और मुनाफा लगातार बढ़ रहा था। लेकिन अब स्थिति पलट गयी है।
स्पेक्ट्रम मसले पर टेलीकॉम क्षेत्र के नियामक टीआरएआई की कल की सिफारिशें इस क्षेत्र के बारे में निवेशकों की चिंता और बढ़ाने वाली ही हैं। जिस तरह भारती एयरटेल और वोडाफोन ने इन सिफारिशों पर तीखी प्रतिक्रिया दे कर नाराजगी जतायी है, उससे साफ है कि ये सिफारिशें इन्हें नागवार गुजरी हैं।
टीआरएआई ने कहा है कि उसकी विशेषज्ञ समिति ने स्पेक्ट्रम की आज की उचित कीमत तय करते समय 3जी स्पेक्ट्रम की नीलामी की कीमतों को ध्यान में रखा है। ऐसे में एयरटेल जैसी कंपनियों का यह सवाल वाजिब है कि 2जी स्पेक्ट्रम के लिए 6.2 मेगाहर्ट्ज से ज्यादा स्पेक्ट्रम की उसकी नयी कीमतें 3जी कीमतों की तुलना में कहीं केवल 24% तो कहीं 868% क्यों हैं। किसी भी सर्किल में किसी भी कारण से 2जी स्पेक्ट्रम की कीमत 3जी स्पेक्ट्रम की खुली नीलामी में तय कीमत से नौ-दस गुना कैसे हो सकती है!
दरअसल टेलीकॉम विवादों की स्लेट पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि हर नयी बात कोई नया बखेड़ा खड़ा कर देती है। यह सब तभी सुलझेगा, जब पूरी स्लेट साफ करके नये सिरे से इस स्लेट पर लिखा जाये। लेकिन यह कैसे होगा? पहले तय करें कि किन कंपनियों के पास वैध लाइसेंस हैं। फिर अवैध लाइसेंस वाली कंपनियों को बाहर करें। इसके बाद वैध लाइसेंस वाली पुराने लाइसेंस वाली संचार कंपनियों को दिया गया अतिरिक्त स्पेक्ट्रम और नये लाइसेंस वाली कंपनियों को मिला सारा स्पेक्ट्रम फिर से नीलामी की टेबल पर रख दें - हाल में नीलाम किया गया 3जी स्पेक्ट्रम भी।
लेकिन ऐसा करना आसान नहीं है। अवैध लाइसेंस का फैसला अब सर्वोच्च न्यायालय के हाथों में है। और फिर कंपनियाँ पहले मिला स्पेक्ट्रम लौटाने के लिए क्यों तैयार होंगी – टीडीसैट और सर्वोच्च न्यायालय नहीं चली जायेंगी क्या! Rajeev Ranjan Jha
(शेयर मंथन, 10 फरवरी 2011)

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