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भाजपा दौड़ में आगे, लेकिन मंजिल है दूर

राजीव रंजन झा : दिसंबर 2013 के पहले हफ्ते में विधानसभा चुनावों के नतीजे आने से पहले ही 'निवेश मंथन' के लिए अपने लेख में मैंने लोकसभा चुनावों के संदर्भ में कहा था कि कांग्रेस की सीटें घटने की बहुत साफ भविष्यवाणी की जा सकती है, वहीं दावे के साथ यह कह पाना मुश्किल है कि भाजपा बहुमत के लिए जरूरी आँकड़ा जुटा पाने की स्थिति में आ चुकी है। 
विभिन्न दलों की ओर से लोकसभा के लिए चुनावी प्रचार अभियान अब शुरू हो चुका है और ताजा जनमत सर्वेक्षण वही निष्कर्ष दे रहे हैं। अब यह तो स्पष्ट है कि कांग्रेस अपनी अब तक न्यूनतम संख्या की ओर बढ़ रही है। लेकिन क्या भाजपा अपनी अधिकतम संख्या की ओर बढ़ पायेगी? यह आज भी एक बड़ा प्रश्न-चिह्न है। 
इंडिया टुडे और सी-वोटर का ताजा सर्वेक्षण बता रहा है कि अकेले भाजपा को देश भर में 188 सीटें मिल सकती हैं। दूसरे सर्वेक्षणों के अनुसार भी भाजपा को पिछले चुनाव की तुलना में बढ़त मिल रही है, लेकिन उसके 200 से आगे जा सकने के अनुमान नहीं हैं। गठबंधन के सहयोगियों को मिला लें, तो एनडीए की संख्या 200 सीटों को बस किसी तरह पार कर पा रही है। ऐसी स्थिति में शेयर बाजार के लिए खुश होने वाली कोई खास बात नहीं है, क्योंकि सीएलएसए ने तो विधानसभा चुनावों से पहले ही अपनी रिपोर्ट में भाजपा को 202 सीटें मिलने का अनुमान सामने रख दिया था। तब बाजार गोल्डमैन सैक्स की टिप्पणियों और सीएलएसए के सर्वेक्षण के उस अनुमान पर उछल गया था। इसलिए ताजा सर्वेक्षणों के जो अनुमान आये हैं, वे तो बाजार के मौजूदा भावों में पहले से ही शामिल हैं। 
विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद यह तो समझ में आ गया था कि उत्तरी भारत के एक बड़े हिस्से में भाजपा की लहर बन चुकी है। लेकिन लोग उत्तर प्रदेश और बिहार को लेकर असमंजस में थे। उत्तर प्रदेश में भाजपा बीते डेढ़ दशकों से एकदम पस्त हालत में थी। पिछले चुनाव में उसे राज्य की 80 में से केवल 10 सीटें मिली थीं। इसलिए लोग असमंजस में थे कि यहाँ भाजपा बढ़ेगी भी तो कितना बढ़ेगी! बिहार में भी जदयू से गठबंधन टूटने के बाद भाजपा को फायदा होगा या नुकसान, इसके बारे में भी केवल अटकलें ही लगायी जा सकती थीं। 
लेकिन अब उत्तर प्रदेश और बिहार के मिजाज का भी पता लग रहा है ताजा जनमत सर्वेक्षणों से। लोकनीति और सीएनएन आईबीएन का सर्वेक्षण उत्तर प्रदेश में भाजपा को 41 से 49 तक सीटें मिलने की भविष्यवाणी कर रहा है। बसपा को 10-16, सपा को 8-14, कांग्रेस को 4-10 और अन्य को 2-6 सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया है। एबीपी ने भी अपने सर्वेक्षण में भाजपा को 35, सपा को 14, बसपा को 15, कांग्रेस को 12, ‘आप’ को 2 और अन्य को 2 सीटें मिलने का अनुमान जताया है। इंडिया टुडे और सी-वोटर के सर्वेक्षण में भाजपा को उत्तर प्रदेश में मिलने वाली सीटों की संख्या अन्य सर्वेक्षणों से कम है, लेकिन उसका सर्वेक्षण भी भाजपा के खाते में राज्य में 30 सीटें जाने की संभावना बता रहा है। सी-वोटर सर्वेक्षण की मानें तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस केवल 4 सीटों पर सिमटने वाली है और यहाँ 'आप' को केवल एक सीट मिल पायेगी। 
लोकनीति का सर्वेक्षण भाजपा उत्तर प्रदेश में अपना मत-प्रतिशत साल 2009 के 18% से बढ़ा कर 38% तक ले जाती दिख रही है। नुकसान हो रहा है बसपा को, जो 28% से घट कर 17% पर आ गयी दिखती है। सपा भी 23% से घट कर 17% पर नजर आ रही है। कांग्रेस का मत-प्रतिशत 18% से घट कर 16% रहने की संभावना लग रही है। वहीं ‘आप’ को 5% मत मिलते दिख रहे हैं।
इन सर्वेक्षणों से लगता है कि दिल्ली पुलिस से टकराव के बाद अरविंद केजरीवाल न तो उत्तर प्रदेश में और न पूरे देश में नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोक पा रहे हैं। साथ ही गौरतलब है कि यह सर्वेक्षण दिल्ली में यूगांडा की महिलाओं के साथ अभद्रता के मसले पर दिल्ली पुलिस से टकराव के अरविंद केजरीवाल के दो दिन के धरने के दौरान हुई छीछालेदर से पहले का है। इसलिए कुछ शुभचिंतक भले ही मानते हों कि नयी-नवेली पार्टी होने के नाते ‘आप’ आने वाले महीनों में अपने जनाधार को और बढ़ा सकती है, लेकिन कहीं उल्टे इस दौरान उनके प्रति आकर्षित हुए लोगों का मोहभंग होने की प्रक्रिया न चल पड़े।
अगर ताजा सर्वेक्षण के आँकड़ों को ही लेकर चलें तो जाहिर है कि भाजपा की बढ़त वास्तव में राष्ट्रीय स्तर पर और क्षेत्रीय स्तर पर बसपा, सपा, जदयू जैसे दलों के नुकसान पर हो रही है। ‘आप’ को जो 5% मत मिलते दिख रहे हैं, वे भी इन्हीं सबसे छिटके वोट हो सकते हैं, क्योंकि भाजपा का मत प्रतिशत तो जबरदस्त ढंग से बढ़ रहा है। सवाल है कि अगर ‘आप’ मैदान में न हो तो क्या ये 5% मत भाजपा की झोली में जा सकते थे? मेरा आकलन है कि ‘आप’ की ओर इस समय वे ही लोग झुक रहे हैं, जो भाजपा के साथ नहीं जा सकते। इसीलिए वे अन्य दलों से निराशा की स्थिति में ‘आप’ को एक नये विकल्प के तौर पर देख रहे हैं।
अगर किसी एक जगह केजरीवाल वास्तव में भाजपा को नुकसान पहुँचाने की स्थिति में दिख रहे हैं तो वह दिल्ली है। लोकनीति का सर्वेक्षण बता रहा है कि प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में नरेंद्र मोदी को जहाँ दिल्ली के 49% लोगों ने पसंद किया था, वहीं अब यह संख्या घट कर 32% रह गयी है। दूसरी ओर केजरीवाल को पसंद करने वालों की संख्या 6% से बढ़ कर 34% हो गयी है। यानी दिल्ली में कुछ मोदी-समर्थक अब केजरीवाल की ओर झुके हैं।
दिल्ली में भाजपा का यह नुकसान उसके मत-प्रतिशत में भी दिखता है, क्योंकि लोकनीति के सर्वेक्षण के अनुसार दिल्ली में 48% मतदाता ‘आप’ के साथ नजर आ रहे हैं। भाजपा का मत-प्रतिशत 2009 के 35% से घट कर 30% रह गया है। लेकिन यहाँ असली सफाया तो कांग्रेस का हुआ है, जिसका मत प्रतिशत 2009 के 57% से घट कर 16% पर आ जाने का अनुमान है।
कुछ लोगों को लग रहा है कि कांग्रेस के लिए आगामी लोकसभा चुनाव 1977 जैसे होंगे। लेकिन 1977 में भी कांग्रेस आज से बहुत बेहतर हालत में थी। उस चुनाव में कांग्रेस गठबंधन ने 189 सीटें और खुद कांग्रेस ने 154 सीटें जीती थीं। आज तो जनमत सर्वेक्षण 100 से कम सीटों की बातें कर रहे हैं और मुझे डर है कि कहीं यह 50-60 सीटों की ओर न फिसल जाये। उत्तर भारत में तो सफाया तय है ही, दक्षिण भारत में भी कोई खास ठौर-ठिकाना नहीं दिख रहा। कांग्रेस को 1977 में आंध्र प्रदेश में अच्छा सहारा मिल गया था, लेकिन इस बार आंध्र की 42 सीटों में से कांग्रेस को लोकनीति के सर्वेक्षण में केवल 5-9 सीटें मिलती दिख रही हैं। तमिलनाडु की 39 सीटों में वह केवल 1-5 सीटों पर सिमट सकती है। केवल केरल और कर्नाटक में वह सम्मानजनक स्थिति में रह सकती है। 
लेकिन इस आँकड़ेबाजी के बीच शेयर बाजार के लिए तो मूल प्रश्न एक ही है कि क्या भाजपा की सरकार बन पायेगी? इससे आगे बाजार का प्रश्न यह है कि क्या नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन पायेंगे? बीते कई सालों से कांग्रेस से बुरी तरह निराश शेयर बाजार ने अपनी सारी उम्मीदें मोदी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना से बाँध ली हैं। ताजा सर्वेक्षण बाजार को इस बारे में उम्मीद तो जगाते हैं, लेकिन पक्का भरोसा नहीं दिलाते। Rajeev Ranjan Jha
(शेयर मंथन, 24 जनवरी 2014)

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