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सत्यम के किस्से में अर्न्स्ट एंड यंग की पहेली

राजीव रंजन झा

एक स्थिति की कल्पना करें – आप अपने परिवार के साथ गोलगप्पे वाले के पास जाते हैं और भाव पूछते हैं। गोलगप्पे वाला पलट कर पूछता है कि खाना किसे है। चौंक गये? वह समझाता है – बच्चों के खाने के लिए 10 रुपये के 6, मैडम के खाने के लिए 12 रुपये के 6, खुद आपके खाने के लिए 15 रुपये के 6 मिलेंगे। और भी चौंक गये! ऐसा भी कहीं होता है क्या?

आप आगे बढ़े और एक फर्नीचर की दुकान पर आ गये। कुर्सी के दाम पूछे तो दुकानदार ने पलट कर पूछा – कहाँ इस्तेमाल करेंगे? कुर्सी अगर घर में रखनी है तो उसकी अलग कीमत है, सरकारी दफ्तर में रखनी है तो उसकी अलग, वकील के चैंबर में रखनी है तो अलग, डॉक्टर के क्लीनिक में रखनी है तो अलग, नेता जी के दफ्तर में ले जानी है तो अलग। लो, अब यहाँ भी वही कहानी? एक ही कुर्सी की कीमत इस बात पर निर्भर करेगी कि उसे रखना कहाँ है? भाई, दुकानदार को इस बात से क्या मतलब? वह तो अपनी कुर्सी के दाम बताये, फिर खरीदने वाला समझे कि उसे कहाँ ले जानी है।
क्या हो गया है इस बाजार को। पहले तो कभी ऐसा नहीं सुना? दरअसल आज सुबह इन्होंने अखबार में अर्न्स्ट एंड यंग (ईएंडवाई) की सफाई पढ़ ली है। मेटास के मूल्यांकन में इस कंसल्टेंसी फर्म ने यह सफाई दी है कि सत्यम की ओर से अधिग्रहण की बात बता कर उससे मूल्यांकन नहीं कराया गया, बल्कि राजू परिवार के बीच आपसी हस्तांतरण की बात कह कर मूल्यांकन कराया गया था। एक सफाई यह दी गयी कि मूल्यांकन सत्यम ने नहीं कराया, एक कानूनी फर्म ने कराया। अगली सफाई देखिये – मूल्यांकन बस आरबीआई के नियमों से जुड़ी जरूरतों के लिए कराया गया था। इससे पहले कानूनी फर्म एलएंडएल की यह टिप्पणी दिखी थी कि मूल्यांकन केवल आईपीओ के लिहाज से कराया गया था।
तो क्या इसका मतलब है कि आरबीआई में दाखिल करने के लिए, आईपीओ के लिए और  अधिग्रहण के लिए एक ही कंसल्टेंसी फर्म के मूल्यांकन अलग-अलग होंगे? अर्न्स्ट एंड यंग जरा समझायेगी कि जरूरत अलग हो जाने से किसी जमीन की कीमत कैसे बदल जाती है? अगर नहीं, तो आप इस तर्क की आड़ क्यों ले रहे हैं कि मूल्यांकन अधिग्रहण के लिए नहीं कराया गया था, या सत्यम ने नहीं कराया था। सीधा मुद्दा यह है कि मूल्यांकन सही था या नहीं। बाजार को संदेह यह है कि आपने प्रमोटरों के कहने पर उनके मनचाहे मूल्यांकन पेश किये। सफाई इस बात की देंगे तो अच्छा होगा।

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