राजीव रंजन झा
विदेशी निवेश की सीमा के नियमों को सरल बनाने के नाम पर सरकार ने इन सीमाओं को एक तरह से खत्म ही कर लिया है। कहने को एक सामान्य-सा सरलीकरण किया गया है, लेकिन वास्तव में इस सरलीकरण ने इन सीमाओं को बेमानी बना दिया है।
एक उदाहरण ले कर मामले को समझें तो आसानी होगी। क नाम की एक टेलीकॉम कंपनी है। इस कंपनी के शेयरधारकों में ख नाम की एक भारतीय कंपनी है। कंपनी ख में कुछ विदेशी हिस्सेदार भी हैं। टेलीकॉम क्षेत्र में होने के चलते कंपनी क में 74% से ज्यादा विदेशी निवेश नहीं हो सकता। अब तक लागू रहे नियम के तहत 74% की इस सीमा को जोड़ते समय न केवल सीधे तौर पर कंपनी क के विदेशी निवेशकों की हिस्सेदारी देखी जाती थी, बल्कि यह भी देखा जाता था कि कंपनी ख में विदेशी हिस्सेदारी कितनी है। कंपनी क में ख की हिस्सेदारी और ख में विदेशी निवेशकों की हिस्सेदारी के अनुपात से निकाला जाता था कि ख के विदेशी हिस्सेदारों का कितना हिस्सा क में बनता है और उसे क में कुल विदेशी निवेश का भाग माना जाता था। अब ऐसा नहीं माना जायेगा।
नये नियम के मुताबिक अगर कंपनी ख में भारतीय हिस्सेदारों के पास आधी से ज्यादा हिस्सेदारी है और कंपनी पर उनका नियंत्रण है, तो ख में विदेशी निवेशकों की हिस्सेदारी को आनुपातिक तौर पर क में होने वाले विदेशी निवेश का भाग नहीं माना जायेगा।
अब कल्पना करें कि कोई विदेशी निवेशक पहले कंपनी क में सीधे तौर पर 74% हिस्सा लेता है। बाकी 26% हिस्सा कंपनी ख के पास रखा जाता है, जिसमें उसी विदेशी निवेशक की 49% और किसी भारतीय कंपनी ग की 51% हिस्सेदारी है। इस भारतीय कंपनी ग में फिर से उसी विदेशी निवेशक की 49% हिस्सेदारी रखी जाती है और किसी अन्य भारतीय कंपनी घ की 51% हिस्सेदारी। इस सिलसिले को वह विदेशी निवेशक जिस सीमा तक चाहे, वहाँ तक खींच सकता है। ऐसी हालत में कंपनी क में होने वाला लगभग सारा निवेश उसी विदेशी निवेशक का हो सकता है। वैसे भी, हचिसन का मामला इक्विटी संरचना का ऐसा नायाब फार्मूला पहले ही सामने रख चुका है, जिसमें किसी भी विदेशी निवेश सीमा का कोई मतलब नहीं है। विदेशी निवेशक अपने ही किसी भारतीय कर्मचारी को कर्ज दे, जिससे वह कर्मचारी उस कंपनी के शेयर खरीदे। शर्त यह कि वो कर्मचारी अपने शेयर भविष्य में उसी विदेशी निवेशक को बेचेगा या उसके कहे मुताबिक बेचेगा। अब रख लें जितनी भी सीमा रखनी है!