राजीव रंजन झा
जब भी लोग यह सोचने लगते हैं विश्व और खास कर अमेरिका की अर्थव्यवस्था से तमाम बुरी खबरें आ चुकी हैं और इससे बुरी स्थिति अब क्या होगी, तभी कुछ और नकारात्मक आँकड़े सामने आ जाते हैं। ये आँकड़े पहले से भी ज्यादा डरावने दिखते हैं। लेकिन क्या ये आँकड़े भारतीय बाजार का भी आइना बनेंगे? शायद नहीं।
यह ठीक है कि अमेरिकी बाजार इस समय नवंबर 2008 के निचले स्तरों को छूने लगे हैं। हो सकता है कि अक्टूबर 2008 के निचले स्तर भी दिखें या शायद वे स्तर भी टूट जायें। घरेलू मोर्चे पर नयी खबरों की कमी से भारतीय बाजार कम-से-कम अगले एक महीने तक तो अंतरराष्ट्रीय बाजारों के साथ-साथ ही डोलता रहेगा, इसलिए कुछ समय तक सेंसेक्स और डॉव जोंस एक दिशा में चलते रहें तो इस पर भी हैरानी नहीं होगी। लोग उम्मीदें जता रहे हैं कि शायद भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) आने वाले दिनों में ब्याज दरों में कमी कर दे। लेकिन यह फैसला भी बाजारों में एकदम से जान नहीं फूँक देगा। पिछली कटौतियों से कितना उत्साह बना और कितना टिका? बेशक ब्याज दरों में कटौती जरूरी है और इससे अर्थव्यवस्था को फायदा मिलेगा। लेकिन यह कटौती शेयर बाजार को ऐसा टॉनिक नहीं दे देगी, जिससे यह बल्लियों उछलने लगे या अंतरराष्ट्रीय दबाव को पूरी तरह झेल जाये।
लेकिन अब से एक महीने बाद लोग चौथी तिमाही के आँकड़ों की चर्चा करने लगेंगे। फिलहाल ज्यादा लोग इन नतीजों के बारे में उत्साहित नहीं हैं। शायद उन्हें बाजार से कुछ पुख्ता संकेतों का इंतजार भी है। लेकिन ऑटो और सीमेंट जैसे कई क्षेत्रों के संकेत सकारात्मक होते लग रहे हैं। एक महीने बाद बाजार को कुछ हद तक दिखने लगेगा कि चौथी तिमाही के आँकड़े कैसे रहने वाले हैं। और दो महीने बाद जब नतीजों का दौर शुरू होगा, तो काफी मुमकिन है कि बाजार को कुछ सकारात्मक आश्चर्य वाली खबरें मिलने लगें। तीसरी तिमाही के नतीजे कमजोर रहे हैं, लेकिन उतने नहीं जितना हौवा बनाया जा रहा था। अगर चौथी तिमाही ठीक-ठाक निकल जाये या कुछ सुधार दिखने लगे तो बाजार का मिजाज काफी बदल सकता है। तब न केवल घरेलू निवेशकों का हौसला बढ़ेगा, बल्कि विदेशी निवेशक भी भारतीय बाजार के बारे में अपनी रणनीति बदलेंगे।
लेकिन इसी आकलन का दूसरा पहलू भी है। अगर कहीं चौथी तिमाही नतीजों ने झटके दिये, तो राजनीतिक अनिश्चितता के बीच ये झटके ज्यादा खतरनाक साबित हो सकते हैं।