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टेलीकॉम नाटक : सूत्रधार के बदले कहीं विदूषक न बन जाये सरकार

राजीव रंजन झा : कल मैंने चर्चा की थी कि टेलीकॉम के अनवरत चलते नाटक के इस अंक में कौन जीता, कौन हारा।

जीती वो कंपनियाँ जो इस बाजार पर पहले से काबिज हैं। हारा आम ग्राहक। लेकिन इस नाटक में सूत्रधार की भूमिका निभाती रही सरकार और उसे चलाने वाली कांग्रेस ने अचानक मंच पर कूद कर कल शोर मचाना शुरू कर दिया कि जीत उनकी हो गयी है। सरकार के ऐसे दावे उसे सूत्रधार के बदले कहीं विदूषक न बना दें इस नाटक का। कल मैंने लिखा था कि जो धाँधली थी, उस पर पहले कई बार लिखा है, इसलिए दोहराने का कोई फायदा नहीं। मगर सरकार और कांग्रेस जिस तरह से अपने चेहरे की कालिख को संवैधानिक संस्थाओं पर लपेटने की कोशिश कर रही है, उसके मद्देनजर कुछ बातों की चर्चा फिर से जरूरी लग रही है।
सरकार सीएजी को नसीहत दे रही है कि वह 2जी स्पेक्ट्रम की 2008 की बंदरबाँट में होने वाले नुकसान के आसमानी आँकड़ों पर ताजा नीलामी की रोशनी में देखे। लेकिन खुद सरकार के लिए ज्यादा अच्छी नसीहत होगी कि वह इस साल फरवरी में आये सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को फिर से पढ़े। उस आदेश का आधार कहीं भी 1.76 लाख करोड़ रुपये के घाटे का आँकड़ा नहीं है। न्यायालय ने स्पेक्ट्रम बंदरबाँट में होने वाले गोरखधंधे को 122 लाइसेंस रद्द करने का आधार बनाया था। ए. राजा की करतूतों को बड़े विस्तार से उस फैसले में लिखा गया था और उन्हीं के आधार पर तमाम लाइसेंस रद्द किये गये थे। ए. राजा की ओर से कोई गलत काम नहीं किये जाने का प्रमाणपत्र देने वाली सरकार और उसके बड़े मुखर वकील कपिल सिब्बल क्या आज तक फरवरी 2012 के उस फैसले को पूरा पढ़ नहीं पाये? क्या कपिल सिब्बल भूल रहे हैं कि ए. राजा, कनिमोई और कई बड़ी कंपनियों के आला अधिकारी उसी बंदरबाँट से संबंधित मुकदमे में अच्छा-खासा समय जेल में बिताने के बाद जमानत पर बाहर आये हैं, न कि बरी किये गये हैं।
सरकार नीलामी के ताजा आँकड़ों को आधार बना कर यह भ्रम फैलाना चाह रही है कि 2008 में 2जी स्पेक्ट्रम और लाइसेंस के आवंटन में कोई गड़बड़ी नहीं थी। माफ करें, लाइसेंस और स्पेक्ट्रम की कीमत अलग मसला है, जबकि बंदरबाँट और धांधली अलग मसला है। अगर आप कहना चाहते हैं कि स्पेक्ट्रम की कीमत ऊँची रखना टेलीकॉम क्षेत्र के लिए अच्छा नहीं है तो यह एक वाजिब तर्क है। लेकिन अगर आप इस बहाने यह जताना चाहते हैं कि 2008 में कोई गड़बड़ी नहीं की गयी, तो आप सर्वोच्च न्यायालय के बेहद स्पष्ट निर्णय के बावजूद भ्रम फैलाना चाहते हैं। Rajeev Ranjan Jha
(शेयर मंथन, 16 नवंबर 2012)

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