राजीव रंजन झा : मोबाइल ऑपरेटरों के पास मौजूद अतिरिक्त स्पेक्ट्रम पर एकमुश्त शुल्क लगाने का फैसला करके मंत्रियों के अधिकृत समूह (ईजीओएम) ने सरकारी खजाने में कम-से-कम 37,000 करोड़ रुपये डलवाने का इंतजाम कर लिया।
इस ईजीओएम के प्रमुख खुद वित्त मंत्री पी चिदंबरम हैं। इस फैसले से सरकारी घाटे (फिस्कल डेफिसिट) के मोर्चे पर वित्त मंत्री के रूप में उनकी चिंता जरूर कुछ कम हो गयी होगी। लेकिन क्या टेलीकॉम कंपनियाँ इस फैसले को आसानी से मान लेंगी? इस क्षेत्र में हर विवाद देश की सर्वोच्च अदालत तक जाने का रिवाज रहा है। इसलिए जवाब आप खुद समझ सकते हैं। सरकार के इस फैसले के विरोध में टेलीकॉम कंपनियों को सबसे मजबूत तर्क देने वाला दस्तावेज उन्हें खुद सरकार ने दे रखा है। इस कागज को टेलीकॉम लाइसेंस कहा जाता है।
यह एकमुश्त शुल्क का मामला क्या है? पुरानी नीति के तहत मोबाइल कंपनियों को जब लाइसेंस दिये गये तो उन्हें कहा गया कि लाइसेंस के साथ 6.2 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम मिलेगा, जिससे वे अपनी सेवाएँ दे सकें। साथ में यह भी नीति रखी गयी कि जब कोई मोबाइल कंपनी एक तय सीमा से अधिक ग्राहक बना लेंगी तो उसके बाद उन्हें 6.2 मेगाहर्ट्ज से अधिक स्पेक्ट्रम मिल जायेगा। समय के साथ कंपनियाँ इस तय सीमा को पार करके अतिरिक्त स्पेक्ट्रम लेती रहीं। अब इसी अतिरिक्त स्पेक्ट्रम के लिए सरकार मोबाइल कंपनियों से एकमुश्त रकम वसूलना चाहती है। यही नहीं, इसने 6.2 मेगाहर्ट्ज से अधिक नहीं, बल्कि 4.4 मेगाहर्ट्ज से ज्यादा के अतिरिक्त स्पेक्ट्रम पर ही एकमुश्त शुल्क लेने का फैसला किया है।
यह एकमुश्त शुल्क 20 साल के लाइसेंस की अवधि में जितना समय बाकी हो, उस अनुपात में लिया जाना है। इसलिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि एकमुश्त शुल्क कब से जोड़ा जायेगा। ईजीओएम ने फैसला किया है कि कंपनियों के पास 4.4 मेगाहर्ट्ज से 6.2 मेगाहर्ट्ज तक का जो स्पेक्ट्रम हो, उस पर एकमुश्त शुल्क अब से लेकर लाइसेंस की बाकी बची अवधि के आधार पर लगेगा। वहीं 6.2 मेगाहर्ट्ज से अधिक के अतिरिक्त स्पेक्ट्रम पर साल 2008 से लेकर बाकी बची अवधि के आधार पर शुल्क लगेगा। ‘अतिरिक्त’ स्पेक्ट्रम के एक हिस्से पर अतिरिक्त शुल्क अभी से, और दूसरे हिस्से पर अतिरिक्त शुल्क 2008 से क्यों लगेगा?
शायद ईजीओएम ने अटॉर्नी जनरल की एक सलाह को आंशिक रूप में मान कर ऐसा किया है। उनका कहना था कि अतिरिक्त स्पेक्ट्रम का शुल्क जुलाई 2008 से ही लेना चाहिए, जब सरकार ने पहली बार ऐसा शुल्क लगाने का फैसला किया था। ईजीओएम ने इस मामले में मोबाइल कंपनियों पर कुछ नरमी बरती दी। सरकार ने जुलाई 2008 में ऐसा शुल्क लगाने का एक फैसला किया तो था, लेकिन उस फैसले की सूचना मोबाइल ऑपरेटरों को समय से नहीं भेजे जाने के आधार पर 6.2 मेगाहर्ट्ज से ज्यादा के स्पेक्ट्रम को लेकर यह फैसला अब से लागू किया जायेगा। यह शुल्क उस दिन से गिना जायेगा, जिस दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल इस मामले में अंतिम फैसला लेगा।
अगर सरकार ने पहले कहा था कि एक तय सीमा से अधिक ग्राहक बना लेने पर आपको अतिरिक्त स्पेक्ट्रम मिलेगा, तो अब यह शुल्क लगाने की बात क्यों उठी? अगर लाइसेंस के साथ शुरुआती स्पेक्ट्रम 6.2 मेगाहर्ट्ज का था, तो 4.4 मेगाहर्ट्ज से अधिक पर ही अतिरिक्त स्पेक्ट्रम क्यों माना जा रहा है? क्या ये दोनों बातें मोबाइल ऑपरेटरों को दिये गये लाइसेंस की शर्तों के विपरीत नहीं हैं? दरअसल पिछले दो दशकों से टेलीकॉम क्षेत्र को लेकर सरकारें जिस तरह नीतियाँ उलटती-पुलटती रही हैं, उसके चलते उसने खुद ही विरोधाभासी नीतियों से अपने लिए कई फंदे बना लिये हैं।
दरअसल जब टेलीकॉम कंपनियों को शुरुआत में सेलुलर मोबाइल लाइसेंस दिये गये तो उनसे वास्तव में लाइसेंस शुल्क लिया गया। गौर करें, तब कीमत लाइसेंस की लगायी गयी थी, स्पेक्ट्रम की नहीं। स्पेक्ट्रम तो लाइसेंस के साथ अपने-आप आ रहा था। इसीलिए उस समय जब यह कहा गया कि तय सीमा से अधिक ग्राहक बना लेने पर अतिरिक्त स्पेक्ट्रम मिलेगा, तो इस अतिरिक्त स्पेक्ट्रम के लिए अतिरिक्त कीमत की कोई बात नहीं की गयी।
लेकिन समय-समय पर बदलती नीतियों के चलते आज की स्थिति यह है कि असली कीमत लाइसेंस की नहीं, स्पेक्ट्रम की मानी जा रही है। इस आधार पर सरकार यह तर्क लेकर चल रही है कि पहले जिन ऑपरेटरों को लाइसेंस के साथ मुफ्त स्पेक्ट्रम दिया गया, उन्हें अपने शुरुआती स्पेक्ट्रम के बाद के अतिरिक्त स्पेक्ट्रम के लिए आज के बाजार भाव के हिसाब से पैसा चुकाना चाहिए। लेकिन अगर मोबाइल कंपनियाँ आज इस फैसले के विरोध में कहें कि आप लाइसेंस की अवधि के बीच में इकतरफा ढंग से शर्तें कैसे बदल सकते हैं, तो उनके सवाल को बेबुनियाद नहीं कहा जा सकता।
जहाँ तक 4.4 मेगाहर्ट्ज से ज्यादा स्पेक्ट्रम को ही अतिरिक्त स्पेक्ट्रम मानने की बात है, सरकार ऐसा इस वजह से कर रही है कि उसने सभी मोबाइल ऑपरेटरों को शुरुआती 6.2 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम पूरी तरह उपलब्ध कराया ही नहीं। सरकार ने यह देखा कि कुछ ऑपरेटरों को वह केवल 4.4 मेगाहर्ट्ज तक ही दे पायी थी। सरकार अपनी इस कमी का दंड मोबाइल ऑपरेटरों को देना चाहती है। उसे डर है कि अगर उसने अतिरिक्त स्पेक्ट्रम का शुल्क वसूलने के लिए 6.2 मेगाहर्ट्ज तक की ही सीमा मानी, तो जिन ऑपरेटरों को अपने शुरुआती स्पेक्ट्रम में से केवल 4.4 मेगाहर्ट्ज ही मिल पाया है, वे बिना कोई अतिरिक्त शुल्क दिये ही 6.2 मेगाहर्ट्ज की तय सीमा में से अपने बाकी बचे स्पेक्ट्रम को पाने के लिए दबाव बढ़ा देंगे।
इस डर की वजह से सरकार ने अपने ही अटॉर्नी जनरल की कानूनी सलाह को भी नजरअंदाज कर दिया है, जिन्होंने कहा था कि लाइसेंस के मुताबिक सरकार ने 6.2 मेगाहर्ट्ज तक स्पेक्ट्रम उपलब्ध कराने का वादा कर रखा है, लिहाजा 4.4 मेगाहर्ट्ज से ज्यादा के स्पेक्ट्रम को अतिरिक्त स्पेक्ट्रम मान कर शुल्क वसूलना समझौते के खिलाफ होगा।
मुझे नहीं लगता कि इस मामले में अंतिम फैसला केंद्रीय मंत्रिमंडल का होगा। मंत्रिमंडल के फैसले के बाद टीडीसैट और फिर सर्वोच्च न्यायालय तक यह बात जायेगी ही। वहाँ अंतिम फैसला क्या होगा, इस बारे में कयास लगाना ठीक नहीं। लेकिन जब तक यह सब चलेगा, तब तक बाजार में टेलीकॉम शेयरों पर इस मुद्दे के चलते एक दबाव तो रहेगा ही। Rajeev Ranjan Jha
(शेयर मंथन, 19 अक्टूबर 2012)
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