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सरकारी खर्च बढ़ने से ही सुधर सकेगा निवेश चक्र : सुनील सिन्हा

sunil sinhaअप्रैल 2014 में लटकी परियोजनाएँ देश की जीडीपी के लगभग 5% के बराबर थीं, जो 2-3 महीने पहले घट कर जीडीपी के लगभग 3.7% के बराबर रह गयी थीं।

इसलिए लटकी परियोजनाओं में कमी तो जरूर आयी है और स्वीकृतियाँ दी गयी हैं। मगर मुख्य मुद्दा केवल स्वीकृतियों का नहीं है। सीएमआईई के आँकड़ों से पता चलता है कि कुल अटकी हुई परियोजनाओं में से बड़ी संख्या उनकी नहीं है जो पर्यावरण स्वीकृति या भूमि नहीं मिलने की वजह से अटकी हैं। एक बड़ा प्रतिशत उन परियोजनाओं का है जिनमें प्रमोटरों की दिलचस्पी खत्म हो गयी है, या जिनके लिए आर्थिक दशाएँ अनुकूल नहीं हैं। स्वीकृतियाँ मिल जाने के बाद भी बहुत सारी परियोजनाएँ आगे नहीं बढ़ती हैं।
अक्सर अर्थव्यवस्था में धीमापन आने पर उद्योग जगत की जोखिम उठाने की क्षमता कम हो जाती है। कोई भी निवेश जमीनी स्तर पर आ सके, उसका चक्र दो से तीन साल का होता है। फिर अगले पाँच-सात साल या 10 साल में आप उस निवेश से लाभ लेना चाहते हैं। समस्या यह है कि पिछले ढाई-तीन साल से मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में क्षमता इस्तेमाल का स्तर 70-75% के आसपास ही चल रहा है। सामान्य स्थितियों में माना जाता है कि अगर आपकी क्षमता इस्तेमाल का स्तर 70% के आसपास है तो आपको भविष्य के विस्तार की योजना बनानी शुरू कर देनी चाहिए, क्योंकि जब तक आपका नया संयंत्र शुरू हो सकेगा, तब तक आप 100% क्षमता इस्तेमाल पर पहुँच चुके होंगे। इसलिए अगर आपने पहले से तैयारी नहीं की तो आप माँग पूरी नहीं कर सकेंगे। मगर पिछले दो-तीन सालों में उद्योग जगत भी यह देख रहा है कि हमारी क्षमता इस्तेमाल का स्तर समय गुजरने के साथ बढ़ ही नहीं रहा और 70-75% पर ही अटका हुआ है। यह उन्हें संकेत दे रहा है कि भविष्य की माँग उनकी उम्मीदों के मुताबिक नहीं बढ़ रही है। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री भले ही कहें कि आपको जोखिम लेना चाहिए, मगर कोई जोखिम लेगा भी तो नाप-तौल कर ही। निजी उद्योग का मकसद मुनाफा कमाना है।
दूसरी तरफ जहाँ वास्तव में कमी है, वह है बुनियादी ढाँचा क्षेत्र। इसमें पीपीपी को लेकर एक अति-उत्साह बना था। निजी क्षेत्र ने इस क्षेत्र में 2010-11 के बाद आक्रामक बोलियाँ लगायी थीं, लेकिन बहुत सारे मुद्दों जैसे जमीन, नीतिगत निष्क्रियता वगैरह की वजह से वे अटक गये। निजी क्षेत्र ने बुनियादी ढाँचा में बाजार से उठाया हुआ पैसा लगाया था। लेकिन परियोजनाएँ अटक जाने या उनमें उम्मीदों के मुताबिक लाभ नहीं मिलने के कारण ऋण चुकाने की उनकी क्षमता कमजोर है। इसलिए कमजोर बही-खाते के साथ निजी क्षेत्र तो बुनियादी ढाँचा में निवेश नहीं कर सकता है। अगर निजी क्षेत्र इसके लिए बाजार में ऋण लेने के लिए जाये भी तो मिलेगा नहीं या बहुत ऊँची दर पर मिलेगा क्योंकि उनके बही-खाते में पहले से काफी उधारी है। इन कंपनियों के ऋण फँसे होने के कारण बैंकों के सामने एनपीए की समस्या खड़ी हो चुकी है। इसलिए बैंक भी अतिरिक्त ऋण देने की स्थिति में नहीं हैं।
यह एक उलझी हुई स्थिति है, जिसमें मैन्युफैक्चरिंग में निजी क्षेत्र निवेश नहीं कर रहा है क्योंकि उसकी क्षमता इस्तेमाल का स्तर बढ़ नहीं रहा है। बुनियादी ढाँचा में निजी निवेश नहीं हो पा रहा, क्योंकि कंपनियों के बही-खाते पर दबाव है। बैंक ऋण नहीं दे पा रहे, क्योंकि उनका बही-खाता भी एनपीए के चलते खराब हो गया है। साथ ही कई क्षेत्रों के लिए उनकी ऋण-सीमा पहले ही पूरी हो चुकी है। इस उलझी स्थिति से निजात पाने का एक ही तरीका है कि सरकार खर्च करना शुरू करे। एनएचएआई का उदाहरण देखें तो पिछले साल और इस साल भी उसकी सारी परियोजनाएँ ईपीसी आधार पर हैं, कोई भी परियोजना पीपीपी आधार पर नहीं है। पीपीपी का मॉडल चल ही नहीं पाया है। (सुनील सिन्हा, प्रमुख अर्थशास्त्री, इंडिया रेटिंग्स ऐंड रिसर्च Sunil Sinha, Principal Economist, India Ratings and Research)

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